बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
प्रश्न- मथुरा शैली या स्थापत्य कला किसे कहते हैं?
उत्तर -
मथुरा शैली (Mathura Shaili)
(ईसा की पहली शताब्दी)
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस शैली का विकास हुआ उसे मथुरा कला शैली के नाम से जाना जाता है। मथुरा कला शैली का समय ईसा की पहली शताब्दी है। निरन्तर आगे बढ़ती हुई इस शैली ने आगे आने वाले समय में उत्तर भारत की मूर्तिकला की शैलियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। गुप्त काल की श्रेष्ठतम मूर्तिकला को मथुरा शैली का विकसित रूप माना गया है। यहाँ पर बनी मूर्तियाँ पश्चिम में तक्षशिला एवं मध्य एशिया तक तथा पूर्व में श्रावस्ती तथा सारनाथ तक भेजी जाती थीं। अमोहिनी की एक खड़ी मूर्ति, कनकली - तिला में प्राप्त विभिन्न मूर्तियाँ मथुरा के अजायबघर में सुरक्षित हैं। सम्राट कनिष्क की मूर्ति बनारस के अजायबघर में सुरक्षित हाथ में श्रृंगारदान लिये एक दासी की मूर्ति, मथुरा तथा उसके निकट के क्षेत्रों में प्राप्त बुद्ध और बोधिसत्व, यक्ष- यक्षणियों तथा स्त्री-पुरुषों की विभिन्न मूर्तियाँ, इस कला के सुन्दर उदाहरण हैं, परन्तु इनमें अधिकांश मूर्तियाँ नग्न अथवा अर्द्ध नग्न स्त्रियों की हैं। कुषाण काल में बनाई गयी जैन तीर्थकरों की विभिन्न मूर्तियाँ भी मथुरा के निकट प्राप्त हुईं। उनमें से अधिकांश मूर्तियाँ बैठे हुए महावीर स्वामी की है और कुछ अन्य तीर्थकरों एवं जैन मन्दिरों की हैं।
मथुरा, अमरावती की कला परम्परा में नारी मूर्तियों का विशेष प्रसार हुआ। अर्थपूर्ण मुद्रायें, शारीरिक अवयवों के मोड़-तोड़ और उच्चतम अभिव्यक्ति में कलाकारों ने नारी के सहज सौन्दर्य और कोमलता को ही नहीं दर्शाया अपितु उनके मनोगत अंतर्भावों (आन्तरिक भाव) को भी प्रदर्शित किया। मातृदेवी के रूप में नारी को शक्ति का प्रतीक माना जाता था। कलाकारों ने कहीं नारी को माँ, महिषासुरमर्दिनी या सिंहवाहिनी माँ दुर्गा, माँ गजलक्ष्मी, चतुर्भुजी अधीश्वरी के रूप में तो कहीं वैष्णवी शक्ति, विश्व की बीणरूपा, परामाया और जगतजननी विश्ववंदनीय इत्यादि भिन्न-भिन्न स्वरूपों और शक्तियों की द्योतक प्रतिमाओं में दर्शाया, जो अत्यन्त हीं सजीवपूर्ण, यथार्थमय एवं हृदयग्राही है। नारी का लौकिक रूप भी उपेक्षणीय न था। चाहे किसी भी रूप में हो, नारी के मातृत्व के सम्मुख सभी श्रद्धावनत (श्रद्ध से झुका होना) थे। भारतीय कलासाधकों ने विश्वजननी विश्वरुपिणी. महाशक्ति के अचिन्त्य सौन्दर्यमयी रूप और छवि को कला में रूपायित कर दिखाया। मथुरा और अमरावती में ऐसी अनेक नारी- प्रतिमाएँ मिली हैं जो सुडौल एवं सुन्दर हैं। वैसे तो नारी की कल्पना में प्राचीन लोकोत्तर भावनाएं और अलौकिक उदाप्त परम्पराओं का निर्वाह किया गया। शुक (तोता) का पिंजरा लिये खड़ी एक नारी प्रतिमा, दूसरी सौन्दर्ययुक्त नारी अशोक वृक्ष का सहारा लिये हुए एवं तीसरी प्रपात (झरना) के नीचे आनन्दमग्न हो स्नान करती हुई, चौथी प्रणय और राग- मुद्रा की सुकोमल लचकदार भंगिमा में, पाँचवीं तलवार हाथ में थामे महल का पहरा देते हुए और दूसरे हाथ में कदम्ब - पुष्प लिये, कोई बाल सुखाते हुए और स्नान के बाद वस्त्र पहनते हुए और कोई कपोलों (गालों) पर सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग करते हुए, पैरों पर महावर लगाते हुए, कोई कंदुक (गेंद) उछालते हुए, कोई अंजन (काजल) लगाते हुए इत्यादि स्त्रियों को प्रतिमाओं का स्वरूप दिया गया। नारी सौन्दर्य और शारीरिक अवयवों को निरावरण कर उन्हें सहज, प्रकृत रूप में प्रस्तुत किया गया। नारी के साथ अशोक वृक्ष के चित्रांकन का अभिप्राय वह प्राचीन मान्यता थी, जिसके अनुसार सुन्दरियों के कोमलवाम पदचाप से वह पुष्पित हो जाता था। वैसे भी भारतीय वाङ्मय में अशोक और कदम्ब वृक्षों को विशेष महत्व दिया गया है। अशोक वृक्ष प्रायः शोक एवं दैन्य हरने वाला और कदम्ब वृक्ष राधा-कृष्ण प्रणय का केन्द्र स्थल था।
मथुरा और अमरावती की ये नारी प्रतिमाएँ उजली चित्ती वाले लाल खादार पत्थरों पर बनायी (उकेरी गई हैं, परन्तु इन दोनों स्थानों की मूर्तियों के गढ़न और बनावट में पर्याप्त अंतर है। मथुरा की मूर्तियाँ प्रायः शरीर संरचना में भारी-भरकम और विलास निपुण चैतन्य संघटिनी शक्ति से परिपूर्ण होती थीं। अमरावती की मूर्तियाँ प्रेम, माधुर्य और सौन्दर्य में परिणित दृष्टिगत हैं। अमरावती के कलाकारों ने नारी के बाह्य रूप को प्राथमिकता न देकर आन्तरिक सौन्दर्य को अधिक महत्व दिया। फलस्वरूप उनके द्वारा निर्मित मूर्तियों में शरीर का वर्ण, अंग- प्रत्यंगों का संकोच, संयत लज्जा का भाव, दृष्टि, भाव-भंगिमा का मर्मस्पर्शी एवं सजीव प्रदर्शन हुआ है। मथुरा के कलाकारों ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति को मूर्तिकला, स्थापत्यकला, चित्रकला के माध्यम से उसके सशक्त आयाम प्रस्तुत किये। ये प्रतिमाएं प्रायः नृत्य - मुद्रा में हैं और ताल एवं लय के अनुसार ही उनके पैरों की गति की मुद्रायें प्रदर्शित की गई हैं। मथुरा में पूर्ववर्ती और परवर्ती काल की मूर्तियों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। पूर्ववर्ती मूर्तियाँ निर्माण - शैली और आकार में बहुत कुछ भारहुत से प्रभावित हैं। वे वैसी ही अनपढ़, चपटी और दोषपूर्ण हो गई हैं, परन्तु परवर्ती काल की मूर्तियों में परिष्कृत और अनुपात आता गया। भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं भी सर्वप्रथम मथुरा में ही पाई गईं। बुद्ध का सांकेतिक चित्रण तो अब तक होता रहा था, परन्तु स्थूल अंकन की प्रथा न थी। मथुरा की बुद्ध-मूर्तियों में मुख पर उच्फुल्ल शांति, करुणा का भाव और आत्मा के सौन्दर्य का अद्भुत सामंजस्य है। अंतः शक्ति से अनुप्राणित बुद्ध की दिव्य आकृति और चेष्टायें कलाकार की छेनी के संस्पर्श से आध्यात्मिक दीप्ति से उद्भासित (प्रकाश से प्रकाशित) हो उठी हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासीन या खड़ी हुई अथवा अभय मुद्रा में हाथ उठाये दर्शायी गई हैं। जिन दिनों मथुरा में मूर्तियों को रूप दिया जा रहा था, उन्हीं दिनों कुषाण राजाओं की प्रेरणा व प्रोत्साहन से गान्धार (उत्तरी-पश्चिमी भारत) में भी एक नवीन कला - परिपाटी का प्रचलन हुआ। यूनानी, शक, मुस्लिम, ईरानी इत्यादि बाहरी प्रभावों से इधर की मूर्तिकला और वास्तुकला में विभिन्न देशीय तत्व दृष्टिगोचर हुए। इमारत बनाने के तरीकों में फर्क तो था ही, मूर्तियों की बनावट और गढ़न में भी खास तौर से यूनानी स्थापत्य कला का असर दिखाई पड़ा। गान्धार कला में यूनानी कला की भाँति अधिक स्फूर्ति, यथार्थ कल्पना और स्पष्ट सुदृढ़ भावांकन की प्रवृत्ति स्पष्ट परिलक्षित है, परन्तु भावों की गहराई की दृष्टि से कला निम्न स्तर पर आ गई थी। विषय में गहराई से पैठने (उतरना) और उसकी बारीकियों को आत्मसात् करने में मध्यदेशीय कलाकारों से वे बहुत पीछे थे। गांधार-कला में मानव के चरम सत्य का साक्षात्कार हुआ, परन्तु अनुभूति में उतनी तीव्रता दृष्टिगोचर नहीं होती जो आन्तरिक स्वरूप में रम सकती। निदान मूर्ति की चरम, गूढ़ भावाभिव्यक्ति और एकात्मकता का लोप होता गया। गांधार शैली की मूर्तियाँ भारत में तक्षशिला और पेशावर, अफगानिस्तान, जलालाबाद, सीमाप्रांत और फारस तक में उपलब्ध हुई हैं, परन्तु यह कला अधिक दिन तक जीवित न रह सकी। गांधार शैली में जो पार्थिव तत्व प्रबल हो गये थे वे कलान्तर में आध्यात्मिक भाव में परिणत हुए। मथुरा शैली का सम्बन्ध बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण हिन्दू धर्म तीनों से है।
मथुरा शैली की विशेषतायें - मथुरा शैली की निम्नलिखित विशेषतायें हैं
(1) इसमें सफेद चित्तीदार लालपत्थर पर मूर्तियाँ बनी हैं जो पत्थर भरतपुर तथा फतेहपुर सीकरी में ज्यादातर मिलता है।
(2) गांधार शैली में बुद्ध पद्मासन में या कमलासन पर हैं, परन्तु मथुरा शैली में सिंहासनासीन हैं और पैरों के पास भी सिंह की आकृति है।
(3) मथुरा शैली के मुख पर आभा एवं प्रभामण्डल है तथा दिव्यता एवं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है।
(4) मथुरा शैली में शरीर का धड़ भाग नग्न, वस्त्रहीन है, दक्षिण कर अभय मुद्रा में तथा वस्त्र सलवटों से युक्त हैं।
(5) मधुरा शैली में मूर्तियाँ आदर्श प्रतीक भावनायुक्त हैं।
(6) मथुरा शैली की मूर्तियाँ विशालता से युक्त हैं।
(7) मूर्तियाँ पृष्ठालम्बन रहित हैं, बनावट गोल हैं तथा मस्तिष्क-मण्डित है। मस्तक "ऊर्जा” से अलंकृत तथा श्मश्रुरहित है।
(8) मथुरा में लगभग तीसरी शती ई. पूर्व से बारहवीं शती ई. तक अर्थात् डेढ़ हजार वर्षों तक शिल्पियों ने मथुरा काल की साधना की जिसके कारण भारतीय मूर्ति शिल्प के इतिहास में मथुरा का स्थान महत्वपूर्ण है। कुषाणकाल से मथुरा विद्यालय कला क्षेत्र के उच्चतम शिखर पर था। सर्वाधिक विशिष्ट कार्य जो इस काल के दौरान हुआ वह बुद्ध का सुनिचित मानक प्रतीक था। मथुरा के कलाकार गांधार कला में निर्मित बुद्ध के चित्रों से प्रभावित थे। जैन तीर्थकरों और हिन्दू चित्रों का अभिलेख भी मथुरा में पाया जाता है। उनके प्रभावशाली उदाहरण आज भी मथुरा, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद में दृष्टव्य हैं।
इतिहास - ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि मधु नामक दैत्य ने जब मथुरा का निर्माण किया तो निश्चय ही यह नगरी बहुत सुन्दर और भव्य रही। शत्रुघ्न के आक्रमण के समय इसका विध्वंस भी बहुत हुआ और वाल्मीकि रामायण तथा रघुवंश, दोनों के प्रसंगों से इसकी पुष्टि होती है कि उसने नगर का नवीनीकरण किया। लगभग पहली शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी ई. के मध्य के मृणपात्रों (मिट्टी के बर्तन) पर काली रेखाएँ बनी मिलती हैं, जो ब्रज संस्कृति की प्रागैतिहासिक कलाप्रियता का आभास देती हैं। तत्पश्चात् की जो मृण्मूर्तियाँ हैं, जिनका आकार तो साधारण लोक शैली का है, परन्तु स्वतन्त्र रूप से चिपकाकर लगाये आभूषण सुरुचि के परिचायक हैं। मौर्यकालीन मृण्मूर्तियों का केश पाश अलंकृत और सुव्यवस्थित है। स्लेटी रंग की मातृदेवियों की मिट्टी की प्राचीन मूर्तियों के लिए मथुरा की पुरातात्विकता प्रसिद्ध है। लगभग तीसरी शताब्दी के अन्त तक यक्ष-यक्षणियों की प्रस्तर मूर्तियाँ उपलब्ध होने लगीं। महावीर की मूर्तियाँ भी बनायी गयीं। अनेक वेदि के स्तम्भ भी बनाये गये। यक्ष - यक्षणियों और धन के देवता कुबेर की मूर्तियाँ भी मथुरा से मिली हैं। इसका उदाहरण मथुरा से कनिष्क की बिना सिर की एक खड़ी प्रतिमा है। मथुरा शैली की सर्वाधिक सुन्दर मूर्तियाँ पक्षियों की हैं जो एक स्तूप की वेष्टणी पर खुदी थीं। इन मूर्तियों की भाव-भंगिमा सिन्धु में उपलब्ध नर्तकी की प्रतिमा से मिलती-जुलती है। यह शैली बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित नहीं थी। यह शैली स्वदेशी शैली के रूप में विकसित हुई। मथुरा कला में श्रृंगार रस का पर्याप्त चित्रण है। इस शैली में भरहुत की लोककला और सांची की नगर कला शैली का सुन्दर समन्वय हुआ है। सर्वप्रथम मथुरा कला में ही सम्भवतः व्यक्ति विशेष की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। मथुरा की मूर्तियाँ भारत के बाहर भी भेजी जाती थीं। मथुरा कला का प्रभाव दक्षिणपूर्वी एशिया तथा चीन के शाँत्सी स्थान तक देखा जाता है।
यद्यपि मथुरा कला की कृतियाँ आज भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। तथापि यह ध्यान देने योग्य बात है जिन स्थानों पर ये मूर्तियाँ विद्यमान थीं या पूजी जाती थी। उन विशाल भवनों, स्तूपों और विहारों का अब कोई भी चिन्ह विद्यमान नहीं है। केवल कहीं-कहीं पर टीले बने पड़े हैं। इसलिये हमें उन शिलालेखों का सहारा लेना पड़ता है जो मथुरा के विभिन्न भाग से मिले हैं। इन स्थानों का प्राचीन नाम ज्ञात करने के लिये साधारणतया यह अनुमान लगाया गया है कि जिस स्तूप या विहार का नाम जिस लेख या लेखांकित मूर्ति से मिला है सम्भवतः उस विहार के टूटने पर वह मूर्ति वहीं पड़ी रही होगी। अतएव हम मूर्ति के प्राप्त स्थान को ही उसमें उल्लेखितं स्तूप या विहार की भूमि कह सकते हैं। यदि यह अनुमान सत्य है तो प्राचीन मथुरा के वे स्थान सांस्कृतिक केन्द्रों के स्थान हैं। कलाकृतियों में पत्थर की प्रतिमाओं तथा प्राचीन वास्तुखण्डों के अतिरिक्त मिट्टी के खिलौनों का भी समावेश होता है। इन सबका प्रमुख प्राप्ति स्थान मथुरा शहर को देखने से स्पष्ट है कि यह सम्पूर्ण नगर टीलों पर बसा है। इसके आस-पास भी लगभग दस मील के परिसर में अनेक टीले हैं। इनमें से अधिकतर टीलों के गर्भ से माथुरी कला की उच्चकोटि की कलाकृतियाँ प्रकाश में आयी हैं।
कंकाली टीला - भूतेश्वर टीला, जेल टीला, सप्तर्षि टीला इत्यादि स्थानों का महत्व है। इन टीलों के अतिरिक्त कई कुंओं ने भी अपने उदरों में मूर्तियों को आश्रय दे रखा है। मुसलमानों के आक्रमण के समय विनाश के डर से बहुधा मूर्तियों को उनमें फेंक दिया जाता था। इसी प्रकार यमुना जी के बीच से अनेक प्रकार की प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। महत्व की बात यह है कि जहाँ कुषाण और गुप्तकाल में अनेक विशाल विहार, स्तूप, मन्दिर तथा भवन विद्यमान थे, वहाँ उनमें से अब एक भी अवशिष्ट नहीं है, सब कुछ पृथ्वी के गर्भ में समा गये।
प्रथम मूर्ति - माथुरी कला की मूर्ति के प्रथम दर्शन और उसकी पहचान सन् 1836 में हुई। आजकल यह कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित है। उस समय उसे सायलेनस के नाम से पहचाना गया था। वस्तुतः यह आसवयान का दृश्य है। तत्पश्चात् सन् 1853 में जनरल कनिंघम ने कटरा केशवदेव से कई मूर्तियाँ व लेख प्राप्त किये। उन्होंने पुनः सन् 1862 में इसी स्थान से गुप्त संवत् 230 (सन् 549-550 ई.) में बनीं हुई यथा विहार में स्थापित सर्वांग सुन्दर बुद्ध की मूर्ति का अविष्कार (खोज) किया। यह वर्तमान में लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित है। इसी बीच सन् 1860 ई. में कलक्टर की कचहरी के निर्माण के लिए जमालपुर टीले को समतल बनाया गया। जहाँ किसी समय दधिकर्ण नाग का मंदिर व हुविष्क विहार था। इस खुदाई से मूर्तियाँ, शिलापट्ट, स्तम्भ, वेदिका स्तम्भ, स्तम्भाधार आदि के रूप में मथुरा कला का भण्डार प्राप्त हुआ। इसी स्थान से इस संग्रहालय में प्रदर्शित सर्वोत्कृष्ट गुप्तकालीन बुद्ध मूर्ति भी प्राप्त हुई। सन् 1869 ई. में श्री भगवानलाल इन्द्रा जी को गांधार कला की स्त्रीमूर्ति और सुप्रसिद्ध सिंहशीर्ष मिली। यह आश्चर्य का विषय है कि मथुरा से मौर्यकाल की उत्कृष्ट पाषाणकला का कोई भी उदाहरण अब तकं प्राप्त नहीं हुआ।
शिल्पकला कला के वह रूप है जो त्रिविमीय होते हैं यह कठोर पदार्थ, मृदु पदार्थ एवं प्रकाश आदि से बनाये जा सकते हैं। मूर्तिकला एक अति प्राचीन कला है, जिसके द्वारा कलाकार अपने भावों की अभिव्यक्ति का मनोहारी अंकन कर, अपनी विशिष्टता प्रदर्शित करता है।
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